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Friday, January 2, 2009

जिन्दगी यूँ ही चलती है

जीवन अपनों का सजाना तो है
रेत में ही सही पर घर बनाना तो है

हाँ मालुम है के तूफान का अन्देशा है
मौजों में कश्ती फ़िर भी बहाना तो है

भूख के आगे पलट जाते हैं हर एक तूफान
इस बात का ख़ुद को यकीं दिलाना तो है

हर सीप में मोती मिलता नही दोस्तों
सुना हमने भी ये फ़साना तो है

समां गए कितने लहरों में उस रोज
उजडे इस चमन को फ़िर से बसाना तो है

भूखे रह जायें या सो जायें वो पीके पानी
क़र्ज़ बनिए का फ़िर भी चुकाना तो है

बहुत रो लिए तुम सुन के दास्ताँ मेरी
तेरे इन आसुंओं को अब हँसाना तो है

समुन्दर न सही समुन्दर सा हौसला तो दे
ज़िन्दगी से रिश्ता हम को निभाना तो है

सब कुछ खो के बुत सा बैठा है वो
घाव बन न जाए नासूर उस को रुलाना तो है

Thursday, January 1, 2009

महंगाई

विरोधी नेता
माल दबा दाम बढाते हैं
इसी की सीधी चढ़
सत्ता में आते हैं
गद्दी पे बैठ
बहुत मंहगे हो जाते हैं
महंगाई से दीखते है चहुँ ओर
पर आम जनता की पहुँच से
दूर हो जाते हैं

महंगाई सब को
सरे आम लूटती है
पर रपट इसकी
किसी थाने में
नही लिखी जाती है
इसी लिए शायद
ये बेखौफ बढती जाती है

एक गरीब माँ
बच्चों को
फल के नाम बता रही थी
खरीद सकती नही
इसी लिए
दूर से दिखारही थी

महंगाई स्वयं महंगी हुई
पर रिश्ते सस्ते हो गए
गिरा दाम इमान का
जज्बात नीलाम हो गए
सस्ती बिकने लगी हैं बातें
जान इन्सान की सस्ती होगी
कम हुई कीमत किसानों की
बचा आत्महत्या की केवल रास्ता है
इस मंहगाई के दौर में लोगों
ये ही तो है जो सस्ता है

Saturday, November 15, 2008

समीकरण

माँ पिता पालते हैं
चार बच्चे खुशी से
पर चार बच्चों पे
माँ पिता भारी है
ये कलयुग का समीकरण है

Thursday, November 13, 2008

देश

बदलना चाहो भी तो बदल न पाओगे ज़माने को
बैठे हैं भेष बदल दरिन्दे कोशिश मिटाने को।

बाणों से बिंधा देश है कब से चीख रहा
कोई तो दे दे सहारा मेरे इस सिरहाने को।

सही न गई जब भूख अपने बच्चों की
हो गई खड़ी बाज़ार में ख़ुद ही बिक जाने को।

बूढी आँखें राह तक तक के हार गईं
लौटा न घर कभी गया विदेश जो कमाने को।

विधवा माँ की भूख दवा उम्मीद है जो
कहते हैं क्यों सभी उसे ही पढाने को।

नन्ही उँगलियाँ चलाती है कारखाने जिनके
छेड़ी उन्होंने ही मुहीम बाल मजदूरी हटाने को।

अपनो ने किया दफन गर्भ में ही उस को
तो क्या जो वो चीखती रही बाहर आने को।

Wednesday, November 5, 2008

पुनर्जन्म

जब भी मैं आइना देखती हूँ
चेहरे पर वक़्त की छाया देखती हूँ
गालों की इन लकीरों में छुपी
समय की गर्द को धीरे से छूती हूँ
उसे हटाने की नाकाम कोशिश करती हूँ
और बहुत दुखी होती हूँ

उम्र से लड़ते लड़ते मै हार गई
और सिलवटें चेहरे पर अपना घर बना गई
कुमारी से श्रीमती और श्रीमती से माँ के सफ़र में
मैं तो कहीं खो ही गई
अचानक
माँ माँ की आवाज़ से सोच टूटी मेरी
बेटी जो घुटनों तक आती थी
आज ऊँगली पकड़ बुलाती थी मेरी
व़क्त जो चेहरे पर झुर्रियाँ बना रहा था
वही मेरे ज़िगर के टुकडों की उमर भी बढ़ा रहा था
नन्ही हथेलियाँ अपनी लकीरें बना रहा थी
पर एक माँ के माथे पर
गर्व की एक और गाथा भी गा रही थी
इन्हे बड़ा होते देखने में जो खुशियाँ हैं
माँ के लिए तो वही उसकी सारी दुनिया है
मासूम आखों के आईने में
अपने खोये समय को देखती हूँ
छोटी होती हूँ, जवान होती हूँ और उमर दराज़ हो जाती हूँ
फिर से आइना देखती हूँ चेहरे की इन लकीरों को देखती हूँ
पर अब में खुश होती हूँ
क्योंकि इन रेखाओं में
अपनी आत्मा, अपने बच्चों को बड़ा होती देखती हूँ

Wednesday, October 1, 2008

गरीब

बाबा क्यों बैठे हो उदास और हताश
दुनिया से या ज़िन्दगी से हो निराश
किसी से नही मै मौसम से हूँ बेजार
निगोड़े की वजह से ज़िन्दगी हो गई तार तार
जब चाहिए पानी बरसता ही नही
बरसता है तो फ़िर रुकता ही नही
सूखे और बाढ़ के कहर से
टूटी है कमर कुछ इस कदर
रस्सी बेचने निकला हूँ इधर
सुबह से हो गई शाम
बोहनी तक तो हुई नही
नायलोन के आगे
सन की रस्सी कोई खरीदता ही नही
बाबा दर्द तुम्हारा जानती हूँ
पर एक खुशी की बात बताती हूँ
हमने चंद्र यान भिजा है चाँद पे
भारत सब को बता रहा है शान से
चलो बढ़िया है
मुला इस से होगा क्या
क्या समय से पानी बरसेगा
भूख से कोई न तरसेगा
क्या हमरे बिटवा की होसकेगी पढ़ाई
बिटिया हमरी जायेगी ब्याही
बाबू की खासी को मिल सकेगा आराम
सब हाथों को मिल सकेगा काम
हमरी धन्नो की का होसकेगी दवाई
अम्मा को का देने लगेगा दिखाई
चुका पाएंगे क्या हम महाजन का क़र्ज़
कुकुर और हम में नही है कौनो फर्क
मेरे पास इन बातों का न था कोई जवाब
करा के उस की बोहनी
उठ गई वहां से चुप चाप

Sunday, April 27, 2008

अमेरिका में माँ

अमेरिका में माँ



माँये जब कुछ अलग करना चाहती हैं
तो आँखे हमारी क्यो आश्चर्य से भर जाती हैं

उधरते रिश्तों की सिवन को ,
चुप चाप सीती जाती है ..
कर्तव्य करती जीवन भर ,
अधिकारों का कब सोचती है.
सब की खुशियों के लीये स्वयं कांटो पे चलती है .
पर छालो पे अपने जब वो मरहम लगाती है
तो आँखें हमारी क्यो आश्चर्य से भर ाती हैं.

तो क्या जो पानी मे थोड़ा सा खेल लिया
बड़े से झूले पे जी भर के झूल लिया
सब के लिया जीती रही जीवन भर
तो क्या आज जो कुछ पल अपने लिए जी लिया
औरों की कही करती रही सदा
आज अपनी कही जो करना चाहती है
तो आँखें हमारी क्यो आश्चर्य से भर जाती हैं.

कभी सिन्दूर कभी ममता की कसौटी पे कसी जाती है.
पलके झुका हर पीडा सह जाती है
आंसू अपने सब से छुपाती है
और सदा मुस्कुराती है
आज यदि हमे वो आपनी चाहते बताती है
तो आँखे हमारी क्यों आश्चर्य से भर जाती हैं

माँ सहनशीलता की मूर्ती कही जाती है
सहते सहते मूर्ती ही हो जाती है
मन मे उसके कंही एक बंद कोना है
ये कोा ही शायद उसका अपना होना है
छुपी इसमे एक छोटी सी बच्ची
जब चुपके से झांकती है
आँखे हमारी क्यों आश्चर्य से भर जाती है

माँ जब यहाँ से चली जाती है
थोड़ा यहाँ भी रह जाती है
आपनी हँसी महक यंही छोर जाती है
उसके बनाये बेसन के लडू जब मै खाती हूँ
माँ याद बुत याद आती है
तब आँखे हमारी आश्चर्य से नही आंसू से भर जाती हैं


Monday, January 14, 2008

ग़ज़ल

कुर्वत इतनी न हो के वो फासला बढ़ाये
मसर्रत का रिश्ता दर्द में न तब्दील हो जाये

जाना है हम को मालूम है फिर भी
ख्वाहिश ये के चलो आशियाँ बनायें

खुली न खिड़की न खुला दरवाजा कोई
मदद के लिए वहां बहुत देर हम चिल्लाये

रूह छलनी जिस्म घायल हो जहाँ
जशन उस शहर मे कोई कैसे मनाये

लुटती आबरू का तमाशा देखा सबने
वख्ते गवाही बने धृतराषटृ जुबान पे ताले लगाये

चूल्हा जलने से भी डरते हैं यहाँ के लोग
के भड़के एक चिंगारी और शोला न बन जाये

धो न सके यूँ भी पाप हम अपना दोस्तों
गंगा में बहुत देर मल-मल के हम नहाये