अपनी अभिलाषाओं की आहुति दे हमें सुख की चाशनी परोसते रहे. उनकी आँखों में सपने भी हमारे ही पलते रहे, सूरज की किरण थामी तो हमारे लिए, चांदनी खीच आँगन उतारी तो हमारे लिए और हम दामन फैला उन्हें थाम भी न सके अपनी दुनिया को अपने तक समेट उनकी पहुंच से दूर होते गए. आज ये हर घर की कहानी है. इसी तड़प से उपजी ये कविता-
पहनी
मोची से सिलवाई चप्पल
के दे सके
तेरे पैरों को जूते का आराम
फटी कमीज़ तो चकती लगा ली
ताकि शर्ट तुम्हारी सिल सके
पंचर जुड़ी साईकिल पर चलता रहा
टूटी गद्दी पर
बांध कपडा काम चलता रहा
ताकि खरीद सके
वो पुरानी मोटर साईकिल तुम्हारे लिए
तागी थी जिस धागे से रजाई
उनकी उम्र पूरी हुई
रुई भी खिसक के किनारे हुयी
ठंडी रजाई में सिकुड़ता रहा
के गर्मी तुझ तक पहुँचती रहे
जब भी जला चूल्हा
तेरी ही ख्वाहिशें पकी
उसने खाया तो बस जीने के लिए
जीवन भर की जमा पूंजी
और कमाई नेक नियमति
अर्पित कर
तुझ को समाज में एक जगह दिलाई
पंख लगे और तू उड़ने लगा
ऊँचा उठा तो
पर ये न देखा
के तेरे पैर उन के कन्धों पर है
उन के चाल की सीवन उधड गई
तेरी रफ़्तार बढती रही
सहारे को हाथ बढाया
तुमने लाठी पकड़ा दी
उनकी धुंधली आँखों से
ओझल होगया
वो घोली खटिया पर लेटे
धागे से बंधी ऐनक सँभालते
तेरे लौटने की राह देखते रहे
अंतिम यात्रा तक
आँखों में अटका था
बस एक ही सपना
साबुत चप्पल ,नई कमीज़ और एक साईकिल