वो छोटी अमेरिकन गिलहरी
हमारे देश की
गिलहरियों से अलग
मोटी ताजी
स्वतंत्र ,भय मुक्त
इक्क्षाओं से भरी
बार बार पेड़ से उतरती
कागज़ उठाती
जतन से मुहँ में दबाती
पेड़ पे बने घोसले में
रख आती
समाप्त हुए कागज़
घुमाई दृष्टि इधर उधर
देखा
थे दूसरे पेड़ के नीचे कुछ
झबरीली पूंछ हिलती
दौडी उस को उठाने को
उसी पेड़ से उतर
गिलहरी दूसरी
आई इसे भागने को
ये आती
वो भागती
मैं देख रही थी तमाशा सब
अचानक सुना मैने
ये गिलहरी बोली
क्यों भगा रही हो मुझे
क्या तुम को भी है लगी
हवा भारत की
जो मै एक क्षेत्र से
क्षेत्र दूसरे जा सकती नही
सुन के शर्मसार हुई मै
चली गई गिलहरी
कागज उठा के
और मै सर झुका के
This blog is all about original creations. I have written these Hindi poems and wish to spread happiness and social awareness through my creations.
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Sunday, September 27, 2009
बेटी होने की खुशी
बेटी होने की खुशी
अब सिर्फ़
वेश्याएँ मनाएँगी
समाज के ठेकेदारों के घर
बेटियाँ कोख मे
दफ़न कर दी जाएँगी
काश!
गर्भ का अंधकार छोड़
वो दुनिया का उजाला देख पाती
अब सिर्फ़
वेश्याएँ मनाएँगी
समाज के ठेकेदारों के घर
बेटियाँ कोख मे
दफ़न कर दी जाएँगी
काश!
गर्भ का अंधकार छोड़
वो दुनिया का उजाला देख पाती
खामोशी
आवाज़ मिलती है अंदाज मिलता नहीं
दूर तक राहों में चिराग कोई जलता नहीं
पानी में है शोले और हवाएं नफरत की
फूल चाहत का अब कोई खिलता नहीं
कुरेद्तें है ज़ख्म हरा करने को
चाक जिगर अब कोई सिलता नहीं
उस बस्ती में इतजार का है मतलब क्या
लाख चीखने पर भी दरवाजा जहाँ खुलता नहीं
कुछ यूँ बेनूर हुए है गाँव हमारे
के पत्ता भी अब कहीं खिलता नहीं
देती रही माँ देर तक आवाजें उस को
जाने वाला कभी रुकता नहीं नहीं
दूर तक राहों में चिराग कोई जलता नहीं
पानी में है शोले और हवाएं नफरत की
फूल चाहत का अब कोई खिलता नहीं
कुरेद्तें है ज़ख्म हरा करने को
चाक जिगर अब कोई सिलता नहीं
उस बस्ती में इतजार का है मतलब क्या
लाख चीखने पर भी दरवाजा जहाँ खुलता नहीं
कुछ यूँ बेनूर हुए है गाँव हमारे
के पत्ता भी अब कहीं खिलता नहीं
देती रही माँ देर तक आवाजें उस को
जाने वाला कभी रुकता नहीं नहीं
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