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Monday, October 5, 2009

वर्षा

वर्षा कुछ यूँ भी आँखों में उतरती है .संग  बहा लाती है कुछ शब्द .उन्हीं को पिरो के बनी है ये कविता


वर्षा दे  जाती है
कुरकुरे गुनगुने से सपने
कुछ पुरानी गीली यादों के
वर्षा जलाती है 
मन में स्नेह दीप
गर्माहट इसकी
देह में उर्जा का संचार करती है
अभिलाषा
तुम्हारी  निगाहों के छुअन की
बलवती हो जाती है
वर्षा देती है जन्म
एक अमर प्रेम को
बूंद - धरती ,पात - हरितमा
बिजली और बादल
के प्रणय की साक्षी होती है
वर्षा बरसती है घर में
धो देती है काजल
आंसुओं में घुल
नमकीन हो जाती है
वर्षा
भर देती है नदी ,
कच्चे घडे और प्रेम के बीच 
डुबो देती हैं उन्हें
चिर जीवित करने के लिए
वर्षा दे जाती है
कुरकुरे गुनगुने से सपने
पर नींद छीन लेती है

बारिश के ये दिन

जीवन में जो चीज हमसे दूर हो सदा उसकी कमी खलती है. बारिश, जो भारत में  साथ थी, यहाँ भी है पर दोनों में  बहुत अंतर है. बूंदों के संगीत पर थिरकने, सूरज की बादल संग आँख मिचौली देखने के पल अब हमारी हथेली में बंद नहीं है. पता नहीं समय हमारे साथ बह रहा है या मै समय के साथ पर एक क्षण को भी जो अतीत में झांक पाती हूँ ऐसा ही कुछ याद आता है-

उफ़ बारिश के ये दिन
पानी में  कश्ती बहाने
छपाक से दूसरो को भिगाने
रेन कोट पहने के सुन्दर बहाने 
छतरी लगा के इतराने के दिन
उफ़ ये बारिश के दिन
जब छत पर भीगा करते थे
बूंदों के संग अठकेलियाँ  कर
गीत नया गया करते थे
माँ कि डांट कि भी
कहाँ परवाह किया करतें थे
वो बेफिक्री के दिन
उफ़ ये बारिश के दिन
बारिश कि पहली फुहार से
उठती थी माटी कि खुशबु 
पूरी गलियां महक उठतीं
पत्ती पत्ती डाली डाली सजती
मन में  बसी है आज भी वो खुशबु
वो नरम गरम से दिन
उफ़ वो बारिश के दिन
रिमझिम फुहार के बाद
ठेले पर भुट्टे भुनवाना
भीगते हुए उनको खाना
याद है आज भी वो सोंधा  स्वाद
वो स्वादों के दिन
उफ़ ये बारिश के दिन
घिरते थे जो मेघ
मन में  सोचा करते थे
बरसे उमड़ घुमड़ इतना
के आजाये सड़कों पर पानी इतना
हो जाये रेनी डे 
 दुआं यही  माँगा करते थे
वो छुट्टी पाने के दिन 
उफ़ वो बारिश के दिन
रात में  बदल कि गड गड़ से
जब हम बहने डर जाया करते थे
पकड़ के एक दुसरे को
माँ को  बुलाया करते थे
वो माँ के संग सोने के दिन
उफ़ ये बारिश दिन
बारिश में जब जाती थी बिजली
टटोलते टटोलते मचिश , मोमबत्ती ढूँढा करते थे
फिर सारा घर इकठा होके
उस पिली हलकी रौशनी में
हंसते हंसते खाते और खाते खाते हंसते थे 
 फुर्सत के लम्हे पकड़
अन्ताक्षरी   खेला करते थे
वो अपनेपन के दिन
उफ़ ये बारिश के दिन
न वो सोंधी खुशबु है न माँ का साथ
न डर में  पकड़ने को बहन का हाथ
बरखा में  भीगने का समय भी अब कहाँ है
सब कुछ तो है यहाँ पर वो सुख कहाँ है
फुर्सत के पल भी नहीं,बूंदों को पकड़ने कि तम्मना भी नहीं
फिर भी है आज बारिश के दिन