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Monday, October 15, 2012

 सरस्वती सुमन पत्रिका के क्षणिका विशेषांक में मेरी भी क्षणिकायें है  हरकीरत हीर जी का आभार और इतना सुन्दर अंक निकालने के लिए बधाई .



लड़कियां
देवी ,सुशील ,कुलीन ,
इन भरी पदवियों के नीचे
घुटती हैं
अपने   ही
 खुशियों की लाश लिए
चिरनिद्रा में सो जाती हैं

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लड़कियां
सपनो को
आंटे में गूंध
कढ़ाही में तल देती हैं 
और बाहर
सपनों की लाश पर
सज रही होती है
खाने की मेज
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लड़कियां
स्वेटर की मानिन्द
पहना
गर्माहट लिया
अगले जड़े उधेड़ दिया
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लड़कियां
माँ ,बहन ,पत्नी 
समझी जाती है
पर
इन्सान नहीं
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लड़कियां
नई किताब की मानिन्द
पढ़ा सहलाया
अलमारी में ठूंस दिया
न झाडा ,न पोंछा
न धुप दिखाया
अस्तित्व की चीख
धीरे धीरे ,
दीमक चाटता गया
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लड़कियां
मौसम है
बदलती है रूप
औरों के लिए
सुगंधों में खिल के
सुख के बादल बिखराती हैं
और
पत्तियों सी झड जाती हैं
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लड़कियां
वो कोख हैं
जो कोसी जाती
श्रापी जाती
फिर गिरा दी जाती  हैं
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लड़कियां
देह से मापी जाती हैं
गोरी ,पतली ,लम्बी
शिक्षा ,रूह की रज़ा
कोई नहीं पूछता
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लड़कियां
क्यों ?
कहाँ ?
कब?
 के तीरों से घायल .
और सवालों का लक्ष्य होती हैं
पर जवाब
 सुनता कोई नहीं
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लड़कियां
जब बैठती है एकांत में
खुद से रूबरू होने को
नागफनी सी उगती है
चारो ओर अभिलाषाएं
पूछती हैं
एक ही सवाल
मेरी हत्या क्यों की ?
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ये दो  क्षणिकायें  इस  में नहीं है पर सोचा की शायद आपको पढ़ कर अच्छी लगे
लड़कियां
किसी की नहीं होतीं
माँ पिता के लिए
पराया धन
और उनके लिए
पराये घर से आई (बहू)
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लड़कियां
जिनका
कोई नहीं होता
खुद लड़कियां भी नहीं
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