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Friday, November 8, 2013

 बचपन जीवन की सबसे मासूम और चिंता मुक्त अवस्था है .परन्तु जब हम बच्चे होते हैं तो हमको बड़े होने की जल्दी होती है .और जब बड़े होजाते हैं तो लगता है की बच्चे ही भले थे l बचपन की याद हमारे मन के एक कोने में सदा ही जीवित रहती है और समय समय पर शब्दों में ढल कर कागज पर उतर आती है कभी कविता ,कहानी चित्र या फिर कुछ और बन कर l आज की  कविता भाई किशोर जी के दिए विषय पर लिखी है समाज कल्याण  पत्रिका के लिए .मेरी कविता को पत्रिका में स्थान देने के लिए भाई किशोर श्रीवास्तव जी का धन्यवाद और आभार





मेरा बचपन बैठा है
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वहाँ के मौसम
आज भी कहते हैं
मेरे बचपन की कहानियां
धूल  भरी उस पगडण्डी पे
साईकिल के टायर को
डंडी से मारते  हुए
दूर बहुत दूर
बेफिक्री में दौड़ते
वो मासूम पाँव
जिन्हें मंहगे
जूतों की  जरुरत कभी नहीं पड़ी
जब खेतों में
गन्ने मुस्काते थे
और मटर दानों से भर जाती थी
तब दिन का खाना
खेतों में ही हुआ करता था
उस समय
पिज़्ज़ा बर्गर दिमाग में नाचते नहीं थे
खून का नहीं था
पर हर घर में एक रिश्ता था
कहीं बाबा ,ताऊ ,चाचा
तो कहीं भाभी ,ताई ,चाची
इन रिश्तों के आंगन में
मै कभी गेंद खेलता
कभी स्नेह से दादी के हाथों दूध पीता
ये वो नाते थे जिन्हें
दिखावे की कभी जरुरत नही हुई
गाँव की हवाओं ने
मेरी तोतली बोली को
अपने ताखों में संजो के रखा है
पेड़ ने अपनी शाखों पर
मेरी  तस्वीरें  लगा रखी है
 तब कैमरे कहाँ होते थे
बचपन की गलियों से
मेरे बड़े होते  सपने
मुझे खीच  के यहाँ ले आये
पर उस गाँव की मुंडेर पर
 पैर लटकाए
अभी भी
मेरा बचपन बैठा है