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Thursday, January 22, 2015


प्रेम  नदी
 
उमंग के आसमान से
बादलों की ऊँगली थामे
पहाड़ों के सिरहाने
आकर चुपके से बैठ जाती है
प्रेम  नदीl
अपने अस्तित्व को समेटे
पर्वत की शिराओं में
बहना चाहती है
पर खिसकते हैं पत्थर
और धकेल दी जाती है
वो प्रेम नदी l
उसकी लहरों में
बहुत गहरे तक धंसे होते हैं
पत्थरों के नाखूनों
वो गुलाबी नदी
सफ़ेद पड़ने लगती है
और धीरे धीरे सूख जाती है
लोग कहते हैं
आज भी कभी कभी
पहाड़ों के सिरहाने आकर बैठती है
प्रेम  नदी
इस उम्मीद से के शायद
इस बार वो बह सकेगी पर्वत की शिराओं में


ताज की खूबसूरती देखने वालों
ध्यान से सुनो
इसको गढ़ने वालों की
सिसकियाँ
 सुनाई देती हैं आज भी
-०-
ये ईनाम था या सजा
हाथ काटने के बाद
बहुत देर तक
सोचता रहा वो मजदूर
-०-
दुनिया को
नायब तोहफा
कवियों को  विषय
प्रेमियों को
कसमे खाने का ठिकाना
देने वाला वो मजदूर
 खुद
अपने आंसू भी नहीं पोछ सका था
-०-
सफ़ेद संगमरमर पर
उभरते
ये काले धब्बे
कुछ मजबूर इंसानी की
आँहें हैं

-0-
यमुना में प्रतिबिम्ब मेरा
क्यों धुंधला है ?
मेरी आँखों में  आँसू है
या पानी मैला है
खुली आँखें
उज्वल सपने
लेकर आये थे  यहाँ
वख्त की गर्द
भर गयी आँखों में
अब मुंदी मुंदी सी रहती हैं वो
और धुंधले हुए सपने
 आईने में अपनी पहचान ढूंढते हैं
-०-

इन हवाओं के संग
भेजे हैं माँ ने
कुछ पूजा के फूल
के होने लगे हैं अब
अंकुरित सपने
मेरी इन बंजर आँखों में