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Friday, October 14, 2011

स्त्री अपने सिन्दूर के लिए टुकड़े टुकड़े बिखरे बादल को बटोर कर साया कर देती है सूरज अपनी गति कभी भी बदले धूप को अपने आँचल में समेट अँधेरे पथ को उजाले से भर देती है .स्नेह की दरिया आँगन में बहाने को नाजाने कितने व्रत उपवास रखती है .वो पूजती है तुम्हारे  एक एक शब्द को ,तुम्हारे अनुसार ढल कर तुम जैसी बन जाती है और तुमको पता भी नही चलता .
करवा चौथ आने को है उसी स्त्री के स्नेह रस में सजी एक पुरानी कविता आप सभी के सामने रखी है


अपने प्रेम को लिखने के लिए
शब्द ढूंढे
पर छोटे लगे
अलंकर ,संजा ,रस सब बहते रहे
फिर भी कुछ अधूरा रहा
मैने कागज पर
रख दिए लब
और कविता पूरी होगई
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भावनाएं
जो उभरती है सिर्फ तुम्हारे लिए
सूरज में झुलसती ,बर्फ में पिघलती
बरसात में बहती है
पर तुम्हारी बांहों के लंगर में समां
शांत  होजाती है
महकने के लिए
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प्रेम रस से सीचती हूँ
अपने रिश्तों की जड़ें
तुम्हारे समर्पण से
वो गहरी, मजबूत  हो जाती हैं
संबंधो के वट वृक्ष को थामने के लिए
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घटाओं से चुरा ,
कुछ बूंदें
तुमने रख  दीं  मेरे आँचल में
मैने पल पल समेटा उन्हें
और अंतर घट तक तृप्त हो गई
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कागज को ले हाथों में
मै सोचती रही तुम्हें
खोला तो देखा
उसपर लिखा था
प्रेम
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प्रेम दरिया में बहते हुए
हम आये इतनी दूर
पीड़ा के दंश से
हर पल बचाया मुझे
पर तुम्हारे पांवों में छाले थे
और ज़ख़्मी थे हाथ
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