कभी कभी दीप का प्रकाश ह्रदय के अन्धेरों से हार जाता है .आंसू तेल बन भी जलते हैं कभी, पर सुख की आंच नहीं बन पाते-
प्रेम की बाती बन
मै अकेली जलती रही
शब्दों की हवाओं से बची
पर अब वो आंधियां बन चुके हैं
हाथों के घेरों से
हो सके तो
मुझे बचालो
मै अकेली जलती रही
शब्दों की हवाओं से बची
पर अब वो आंधियां बन चुके हैं
हाथों के घेरों से
हो सके तो
मुझे बचालो
माटी के दिए ने सोखा
मोहब्बत का तेल
सुखी बाती भभक के जली
और राख होगई
वो दिए को
उम्मीद के पानी से
सीचना भूल गई थी
मोहब्बत का तेल
सुखी बाती भभक के जली
और राख होगई
वो दिए को
उम्मीद के पानी से
सीचना भूल गई थी
तुम्हारे प्रेम की
जिस आंच से
जलाया था
उस रोज दिया
वो आंच अब कहीं और महकती है
अब हर बार
दोवाली अँधेरे में बीतती है