Followers

Thursday, January 17, 2013

आज बिना कुछ लिखे ये कविता पोस्ट करना चाहती हूँ क्योंकी लिखने को इतना कुछ की न लिखना ही अधिक ठीक है


 पेड़ ने शोक न मनाया
जबएक एक कर
 पत्ते  साथ छोड़ गए
दुखी न हुआ तब भी
जब गिलहरियों ने चिड़ियों ने
उस पर फुदकना छोड़ दिया
कुछ न कहा उसने
जब सूरज की किरण
जो थामे रहती थी
हर वख्त
उसका दामन
छोड़ उसे
 धुन्ध  की गोद में समा  गई
चुप रहा  वो
 जब ठूठ हुए  बदन को
बर्फ के फूलों की चादर
ने ढक लिया
ठंढ की लहर
उसको अन्दर तक छिल गई थी
पर आज
तो वृक्ष चिटक गया था
दर्द का एक दरिया
फुनगी से जड़ों तक बह रहा था
और उसकी उदासी से पूरा मौसम उदास था
 आज उसने शायद न्यूज़ देखी ली  थी
संस्कारों के देश में
दरिंदो का तांडव देखा था
और महसूस किया था उस चीख को
जिसको वो अमानुष
न महसूस कर पाए
उदास  था वो  दरख़्त
क्योंकी  न्याय की प्रतीक्षा में
दो जोड़ी आँखें
आज भी झाँख रहीं हैं  अम्बर से