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Friday, October 4, 2013

मैने तो खेतों में
फैक्ट्री नहीं बीजी थी
न जाने कैसे
चहुँ और मशीने उग आईं 
-0-

न जाने क्यों
मन हंस ने
खुशियों के मोती चुनने से
इंकार कर दिया
 शायद
गम उसे अब रास आने लगा है
-0-
हर रोज
उगाती  हूँ
एक उम्मीद अपनी हथेली पर
सूरज से
मांग  कर
एक कतरा धूप
उसको पोस्ती  हूँ
पलकों से
उसका पोर पोर सहलाती हूँ
मगर 
न जाने क्यों
शाम ढलते ढलते
वो मुरझाने लगती  है
रात  फिर डराने लगती है मुझे
और मै
 उम्मीद की लाश आपने आगोश में लिए
पलंग के एक कोने में सिमट जाती हूँ

11 comments:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

बहुत ही सुंदर प्रस्तुति.!

RECENT POST : पाँच दोहे,

shikha varshney said...

मैने तो खेतों में
फैक्ट्री नहीं बीजी थी
न जाने कैसे
चहुँ और मशीने उग आईं
वाह क्या अंदाज है ,,
बहुत ही खूब

डॉ. मोनिका शर्मा said...

खूब ..... मर्म को छूते भाव

दिगम्बर नासवा said...

जीवन के गहरे सत्य को क्षणिकाओं में कहा है ...
जब गम रास आने लगते हैं तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता ... भावपूर्ण ...

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

हर रोज
उगाती हूँ
एक उम्मीद अपनी हथेली पर
सूरज से
मांग कर
एक कतरा धूप
उसको पोसती हूँ
बहुत सुन्दर भाव कोमल रचना

भ्रमर ५
प्रतापगढ़ साहित्य प्रेमी मंच

tbsingh said...

asha hi jeevan hai, bahut sunder prastuti

Jyoti khare said...

न जाने क्यों
मन हंस ने
खुशियों के मोती चुनने से
इंकार कर दिया
शायद
गम उसे अब रास आने लगा है ------

जीवन जीने का दर्द ही सहते सहते सब खुछ ख़तम हो जाता है
पर आशा चमकदार रहती है------

सुंदर रचना उत्कृष्ट प्रस्तुति

सादर आग्रह है मेरे ब्लॉग सम्मलित हों
पीड़ाओं का आग्रह---
http://jyoti-khare.blogspot.in

kshama said...

न जाने क्यों
मन हंस ने
खुशियों के मोती चुनने से
इंकार कर दिया
शायद
गम उसे अब रास आने लगा है
Wah!
Diwali mubarak ho!

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

लेकि‍न प्रगति‍ का सच आज यही है

मैने तो खेतों में
फैक्ट्री नहीं बीजी थी
न जाने कैसे
चहुँ और मशीने उग आईं

ज्योति सिंह said...

ati sundar

संजय भास्‍कर said...

प्रशंसनीय रचना - बधाई
लम्बे अंतराल के बाद शब्दों की मुस्कुराहट पर ....बहुत परेशान है मेरी कविता