जब भी मैं आइना देखती हूँ
चेहरे पर वक़्त की छाया देखती हूँ
गालों की इन लकीरों में छुपी
समय की गर्द को धीरे से छूती हूँ
उसे हटाने की नाकाम कोशिश करती हूँ
और बहुत दुखी होती हूँ
उम्र से लड़ते लड़ते मै हार गई
और सिलवटें चेहरे पर अपना घर बना गई
कुमारी से श्रीमती और श्रीमती से माँ के सफ़र में
मैं तो कहीं खो ही गई
अचानक
माँ माँ की आवाज़ से सोच टूटी मेरी
बेटी जो घुटनों तक आती थी
आज ऊँगली पकड़ बुलाती थी मेरी
व़क्त जो चेहरे पर झुर्रियाँ बना रहा था
वही मेरे ज़िगर के टुकडों की उमर भी बढ़ा रहा था
नन्ही हथेलियाँ अपनी लकीरें बना रहा थी
पर एक माँ के माथे पर
गर्व की एक और गाथा भी गा रही थी
इन्हे बड़ा होते देखने में जो खुशियाँ हैं
माँ के लिए तो वही उसकी सारी दुनिया है
मासूम आखों के आईने में
अपने खोये समय को देखती हूँ
छोटी होती हूँ, जवान होती हूँ और उमर दराज़ हो जाती हूँ
फिर से आइना देखती हूँ चेहरे की इन लकीरों को देखती हूँ
पर अब में खुश होती हूँ
क्योंकि इन रेखाओं में
अपनी आत्मा, अपने बच्चों को बड़ा होती देखती हूँ
9 comments:
उम्र बढने के साथ ही माँ बनने का गेव ..बेटी के रूप में पुनर्जन्म बढ़िया लगी रचना ... अच्छी प्रस्तुति
सच कहा...बेटी ..माँ का पुनर्जन्म ही होती है...अपनी आँखों के आगे उसे बढते देखना ..अतुलनीय अनुभव है.अच्छी प्रस्तुति.
बहुत बढ़िया लगी आपकी यह पोस्ट।
सादर
सुन्दर प्रस्तुति
sundar bhav liye hai aapki kavita.....nice post
बहुत सुन्दर लिखा है आपने .......आभार
ye masoom aankhe hi to hoti hain jo jamane bhar ke dard bhula deti hain.
sunder abhivyakti.
हम ही नहीं हमारे साथ समय और अनुभव भी बड़ा होता रहता है. Good read.
aapsabhi ka bahut bahut dhnyavad
sangeeta ji aapne meri is kavita ko pasand kiya aur iska link liya aapka dhnyavad kahun pr shbd chhota lag raha hai pr fir bhi dhnyavad
rachana
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