कभी कभी कोई दर्द इतना गहरे बैठ जाता है की उसकी जलन शायद जीवन भर महसूस
होती रहती है . ..किसी अपने से दूर होने के कारण आँखें उसको देख नहीं पाती
पर महसूस कर पाती है वही भावना शब्दों का सहारा ले कर आज यहाँ उतर आई है .
क्यों होजाता है अकेला ?
जीवन भर
समय की ट्रेन
पकड़ने को
भागते रहे कदम
भोर से धुंधलके के बीच
काम और अपमान की
दोधारी तलवार पर
चलते रहे l
लू की जलन
ठण्ड की पपड़ियाँ
छिलती गईं देह
पर तुम्हे
ये ज़ख्म देखने की
फुर्सत कहाँ थी
तुम तो पूरी करते रहे
उम्मीदों की भी उम्मीद
अपने ही चरागों की
भटकती लौ को
सहारा देते तुम्हारे हाथ
अपमान के फफोलो से भर गए
फिर भी
घर को
बचाने के लिए
तुम नीव का
वो पत्थर बने
जिसकी सराहना किसी ने नहीं की
चक्की
में पिसता रहा
तुम्हारा श्रम
पर भूख
किसी की शांत न हुई
सब कुछ दे कर भी
एक पुरुष
क्यों होजाता है अकेला
अपने अंतिम पलों में ?
24 comments:
ओह!
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति है आपकी रचना जी.
मेरे ब्लॉग पर आपके आने का हार्दिक आभार जी.
यदि हो सके तो मुझे आप अपना फोन/ईमेल सम्पर्क दीजियेगा.अगली बार अमेरिका आना होगा,तो आपसे
अवश्य सम्पर्क करते हुए आऊंगा.आपसे मिलकर बहुत ही खुशी होगी मुझे.
तुम तो पूरी करते रहे
उम्मीदों की भी उम्मीद
अपने ही चरागों की
भटकती लौ को
सहारा देते तुम्हारे हाथ
अपमान के फफोलो से भर गए
फिर भी
घर को
बचाने के लिए
तुम नीव का
वो पत्थर बने
जिसकी सराहना किसी ने नहीं की .... फिर भी अचल अविराम तुम हो चलायमान
आह!!!
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
अनु
संवेदनशील, भावपूर्ण रचना ...जाने क्यों होता यही है....
जीवन भर
समय की ट्रेन
पकड़ने को
भागते रहे कदम
भोर से धुंधलके के बीच
काम और अपमान की
दोधारी तलवार पर
चलते रहे l
लू की जलन
ठण्ड की पपड़ियाँ
छिलती गईं देह
पर तुम्हे
ये ज़ख्म देखने की
फुर्सत कहाँ थी
बहुत ही खूबसूरत कविता |ब्लॉग पर आने हेतु आभार
काफी समय के बाद आपको पढ़ने का सौभाग्य मिला वह इतनी भावपूर्ण रचना के रूप में.
सचमुच यह अजीब पहेली है.
पुरुष की नियति को जानने का सफल प्रयास है यह रचना जो चुपचाप इसी कोशिश मिएँ लगा रहता ही की दीपक की लो मद्धम न पड़े ...
सुन्दर सृजन ,
सुन्दर पोस्ट, बधाई.
कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर पधारने का कष्ट करें .
स्त्री होते हुए भी बड़ी खूबसूरती से आपने एक पुरुष का पक्ष बयान किया है...। एक खूबसूरत रचना के लिए मेरी बधाई...।
प्रियंका गुप्ता
wah......gazab ka.....
Very touchy and profound. Leaves you numb...
हृदयस्पर्शी भाव!
सार्थक चिंतन है..पर प्रश्न में ही उत्तर भी छिपा है..भावपूर्ण सुन्दर अभिव्यक्ति रचना जी .
अपने ही चरागों की
भटकती लौ को
सहारा देते तुम्हारे हाथ
अपमान के फफोलो से भर गए
फिर भी
घर को
बचाने के लिए
तुम नीव का
वो पत्थर बने
जिसकी सराहना किसी ने नहीं की
चक्की
में पिसता रहा
तुम्हारा श्रम
bahut sundar rachana ke sath sath aur 5 september birthday pr hardik badhai rachana ji
हकीकत को बयान करती दिल को छूने वाली कविता । इन पंक्तियों में आपने जीवन का कटु यथार्थ अभिव्यक्त कर दिया है -चक्की
में पिसता रहा
तुम्हारा श्रम
पर भूख
किसी की शांत न हुई
सब कुछ दे कर भी
एक पुरुष
क्यों होजाता है अकेला
अपने अंतिम पलों में ?
अपने ही चरागों की
भटकती लौ को
सहारा देते तुम्हारे हाथ
अपमान के फफोलो से भर गए
मन को गहरे तक छू गई एक-एक पंक्ति...बहुत सुंदर रचना...
...जीतेजी ..सब कुछ जानते हुए भी हम कुछ नहीं कर पाते ...और उसके जाने के बाद यही सच जीवन भर सालता रहता है हमें ...बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तिथि है ...लेकिन यही जीवन का सच है ...
बहुत ही संवेदनशील भावपूर्ण प्रस्तुति,,,बधाई,,रचना जी.
RECENT P0ST ,,,,, फिर मिलने का
सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
रचना जी आजकल ब्लॉग पर सक्रियता बहुत कम है क्या बात है? सब ठीक तो है.
एक पुरुष का दर्द स्त्री की कलम से !बहुत खूब .
भावों की सफल अभिव्यक्ति.
nmskar rachna ji sumdar shbd ki bgiya yah bel nari ke jivan se badi milti julti prtit ho rahi hai sabhar
rachna ji namskar, sundar shbdo se guthi ladiya aurat ke jivan jaisi bel hai,
भाव प्रवण कविता। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है।
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