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Thursday, January 22, 2015


प्रेम  नदी
 
उमंग के आसमान से
बादलों की ऊँगली थामे
पहाड़ों के सिरहाने
आकर चुपके से बैठ जाती है
प्रेम  नदीl
अपने अस्तित्व को समेटे
पर्वत की शिराओं में
बहना चाहती है
पर खिसकते हैं पत्थर
और धकेल दी जाती है
वो प्रेम नदी l
उसकी लहरों में
बहुत गहरे तक धंसे होते हैं
पत्थरों के नाखूनों
वो गुलाबी नदी
सफ़ेद पड़ने लगती है
और धीरे धीरे सूख जाती है
लोग कहते हैं
आज भी कभी कभी
पहाड़ों के सिरहाने आकर बैठती है
प्रेम  नदी
इस उम्मीद से के शायद
इस बार वो बह सकेगी पर्वत की शिराओं में