Followers

Monday, November 24, 2014



हम तीनों की आँखें
टंगी है ,
तुम्हारे जिस्म की खूंटी पर l
हमारी सांसें ,बहती है
तुम्हारी हथेलिओं में
रेखाएं बन कर
और हमारा भविष्य
तुम्हारे मस्तक की श्रम बूंदों में झिलमिलाता है 
तुम्हारे चारो ओर
घूमती हमारी उम्मीदें
प्रेम के उस सोते में दुबकी लगाती हैं
जो तुम से हम तक
हमेशा बहता रहता है
तुम इस परिवार की
रीढ़ की हड्डी हो
तुमको झुकने और टूटने का हक़ नहीं

6 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

खूब, उम्दा पंक्तियाँ

ओंकारनाथ मिश्र said...

प्रेम और समर्पण की सही परिभाषा है यह.

Rachana said...

aap dono ka bahut bahut dhnyavad
rachana

Ankur Jain said...

गहरे भाव लिये उत्कृष्ट रचना।

दिगम्बर नासवा said...

वाह .. लाजवाब पंक्तियाँ ...

सहज साहित्य said...

रचना श्रीवास्तव का चिन्तन लीक से हटकर होता है इसलिए अभिव्यक्ति भी तदनुरूप सशक्त होती है। छोटी-सी यह कविता इसी कारण दिल को छू गई ।