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Thursday, May 21, 2015

 तुमने कहा था
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तुमने कहा था
अपने गगन से मुझे विस्तार दोगे
अपने झरोखे से गिराओगे
छाँव के बादल l
सूरज का एक दीप
मेरी चौखट पर सजाओगे
मै देखती हूँ
तुम्हारा गगन ,झरोखा और सूरज
उम्मीद करती हूँ
और निराश होती हूँ
कोई इस तरह भूलता है
कहीं अपने वादों को

7 comments:

Anjani kumar sinha said...

antas kee gehraai se upji samvednayen

रचना दीक्षित said...

अजी इंतज़ार कीजिये कोई नहीं भूलता पर हाँ कभी देर जरुर हो जाती है
सूक्ष्म पर दिल के करीब

Dr. Hardeep Sandhu said...

रचना जी दिल को छू गई आपकी ये कविता।
इसके आगे कुछ कहने जा रही हूँ ……

अजी भूलना भुलाना
उनकी आदत हो गई है
उनको तो शायद
याद भी नहीं होगा
कभी किए थे
आप संग मिल
ये हसीन वादे
क्योंकि ……
वे मान जो बैठे हैं
कि ……....
वादा कर भूलने को ही
असल ज़िन्दगी कहते हैं।

डॉ हरदीप कौर सन्धु

Jeevan Pushp said...

बहुत नर्म और संजीदगी से शिकायत किये है !
सुन्दर !

आभार !

Unknown said...

कोई क्या करे वादों कि किस्तमत में ही हैं टुट जाना......
http://savanxxx.blogspot.in

Renu singh said...

बेहद करीने से सजे है शब्द और उनके भाव

Renu singh said...

बेहद करीने से सजे है शब्द और उनके भाव